प्राचीन समय में एक गुरुद्रुह नाम का बड़ा ही दुष्ट एवं निर्दयी शिकारी था. परिवार के भरण पोषण के लिए जानवरों का शिकार करना ही उसकी दिनचर्या थी. पाप और पुण्य कर्म में वह अंतर नहीं जानता था. जीवों अथवा मनुष्य को मारना या उनसे लूट पाट करना उसके लिए साधारण कार्य था.
एक बार शिवरात्रि के दिन उसके परिवार के पास खाने के लिए कुछ न बचा. पत्नी और बच्चों को भूख से बिलखता देख गुरुद्रुह शिकार के लिए जंगल में निकल पड़ा. सांय काल तक भी शिकार न मिलने के कारण वह जंगल में भटकता रहा. एक स्थान पर झरना बह रहा था. उस झरने के किनारे बिल्व का एक वृक्ष था, और उसके नीचे एक शिवलिंग भी था जो पत्तों से ढका हुआ था. शिवलिंग से अनजान गुरुद्रुह बिल्व वृक्ष पर चढ़ गया, उसके पास धनुष बाण के साथ साथ एक जल का पात्र भी था.
सूर्यास्त के समय एक हिरणी झरने पर जल पीने आई. हिरनी को देखते ही गुरुद्रुह ने अपने धनुष पर तीर चढ़ाया, जिसके कारण वृक्ष हिला और कुछ बिल्व पत्तियाँ शिवलिंग पर गिर गयी. वृक्ष के हिलने के कारण जल पात्र से भी जल की कुछ बूँदें शिवलिंग पर गिरी. इस प्रकार गुरुद्रुह ने अनजाने में ही शिवरात्रि के दिन भूखे पेट भगवान शिव की पूजा अर्चना की.
उधर हिरणी ने गुरुद्रुह को अपनी ओर निशाना लगते देख उससे अपने प्राणों की रक्षा की प्रार्थना करने लगी और उसे घर जाकर अपने पति और बच्चो से मिलकर आने के लिए कहने लगी. गुरुद्रुह ने उसकी विनती सुनी और हिरणी को आज्ञा दी कि वह घर जाकर तुरंत वापस आ जाये. कुछ समय बाद एक और हिरणी झरने पर आई . शिकारी ने फिर तीर चढ़ाया और एक बार फिर शिवलिंग पर बिल्व पात्र और जल से अभिषेक हुआ. इस बार भी हिरणी अपने बच्चों और पति से मिलने की गुहार लगाने लगी. गुरुद्रुह ने उसे भी जाने दिया.
पेड़ पर बैठकर गुरुद्रुह अब उन दोनों की प्रतीक्षा करने लगा. अचानक उसने देखा कि दोनों हिरणिया अपनेहिरण और बच्चों के साथ उसके पास आ रहे थे. यह दोनों हिरणिया बहने थी और एक ही हिरण से ब्याही थीं. हिरण गुरुद्रुह से अपनी पत्नियों को छोड़ने के लिए विनती करने लगा. वह खुद मर जाने के लिए तैयार था परन्तु अपने बच्चों और पत्नियों की हत्या हिरण को स्वीकार न थी. यह सुनकर हिरणिया भी शिकारी से अपने पति को छोड़ने की विनती करने लगी. यह सब सुनकर हिरन के बच्चे भी रोने लगे और गुरुद्रुह से अपने माता पिता की हत्या न करने के लिए विनती करने लगे. वह मरने के लिए खुद तैयार हो गये. यह सब देखकर गुरुद्रुह असमंजस में पड़ गया. उनका सद्व्यवहार देखकर उसका मन द्रवित हो उठा. वह पेड़ से नीचे उतरने लगा. पुनः पेड़ हिला और बिल्व पत्रों और जल के शिवलिंग पर गिरने से शिवरात्रि का व्रत पूर्ण हुआ. पेड़ से उतरते उतरते भगवान् शिव की कृपा से उसके ह्रदय में दया भावना उत्पन्न हुई . दया धर्म का मूल है. गुरुद्रुह ने हिरण परिवार को जीवन दान तथा अभय दान प्रदान किया जिससे उसके समस्त पाप धुल गए.
इस अनजान सरल एवं स्वाभाविक पूजा से भगवान् शिव प्रसन्न हुए और प्रकट होकर गुरुद्रुह से बोले ” हे गुरुद्रुह तुमने निर्दोष तथा हानि रहित जीवों पर दया की है साथ ही पूजा कर मुझे प्रसन्न किया है. अतः मैं तुम्हे तुम्हारे किये गये समस्त पापों से मुक्त करता हूँ. ” शिव कृपा से गुरुद्रुह के मन से सभी बुरे विचार निकल गए और वह पवित्र एवं सात्विक जीवन जीने लगा.