त्रेता युग में बलि नाम का एक दैत्य था जिसने इंद्रा सहित सभी देवताओं को जीत लिया था. राजा बलि भगवान् विष्णु का परम भक्त था. राजा बलि नित्य ही ब्राह्मणों का पूजन तथा यज्ञ का आयोजन करता था .
उसकी बढते हुए वर्चस्व को देखकर सभी देवता डर गये और भगवान् विष्णु के समक्ष हाथ जोड़कर राजा बलि को हराने की विनती करने लगे. सभी देवताओं की विनती सुनकर भगवान् विष्णु ने अत्यंत तेजस्वी वामन अवतार लिया और राजा बलि की ओर चल पड़े.
भगवान् विष्णु के वामन अवतार को राजा बलि पहचान न पाया और उसके तीन पग भूमि के आग्रह को तुच्छ आग्रह समझकर हामी भर दी.
राजा बलि का संकल्प सुन भगवान विष्णु जो वामन अवतार के रूप में थे अपने त्रिविक्रम रूप को बढाने लगे. उन्होंने विकराल रूप धारण किया . भूलोक में पद, भुवर्लोक में जंघा, स्वर्गलोक में कमर, मह:लोक में पेट, जनलोक में हृदय, यमलोक में कंठ की स्थापना कर सत्यलोक में मुख, उसके ऊपर मस्तक स्थापित किया।
सूर्य, चंद्रमा आदि सब ग्रह गण, योग, नक्षत्र, इंद्रादिक देवता और शेष आदि सब नागगणों ने विविध प्रकार से वेद सूक्तों से प्रार्थना की। तब वामन ने राजा बलि का हाथ पकड़कर कहा कि हे राजन! एक पद से पृथ्वी, दूसरे से स्वर्गलोक पूर्ण हो गए। अब तीसरा पग कहाँ रखूँ?
यह सुनकर राजा बलि ने अपना सिर झुका लिया और भगवान् विष्णु ने अपना पैर उसके मस्तक पर रख दिया जिससे वह पाताल को चला गया। परन्तु उसकी नम्रता को देखकर वामन बोले “हे बलि! मैं सदैव तुम्हारे निकट ही रहूँगा।” विरोचन पुत्र बलि से कहने पर भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन बलि के आश्रम पर भगवान् विष्णु की मूर्ति स्थापित हुई। इसी प्रकार दूसरी क्षीरसागर में शेषनाग के पष्ठ पर हुई.
इस एकादशी को भगवान शयन करते हुए करवट लेते हैं, इसलिए इस एकादशी का नाम परिवर्तिनी एकादशी है.