अजा एकादशी व्रत की कथा राजा हरिश्चंद्र से सम्बंधित है. राजा हरिश्चंद्र ने एक बार सपने में देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य महर्षि विश्वामित्र को दे दिया है. सत्य का पालन करते हुए राजा हरिश्चंद्र ने ऐसा ही किया और महर्षि विश्वामित्र को सम्पूर्ण राज्य देकर खाली हाथ अपनी पत्नी और पुत्र के साथ महल से चलने लगे, तभी ऋषि ने पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं उनसे मांग ली. अपना सब कुछ दान देने के बाद राजा के पास अब कुछ नहीं बचा था सो उसने अपनी पत्नी और पुत्र को बेच कर ऋषि को मुद्राएं दी परन्तु कुछ मुद्राएं अभी भी कम पड़ गयी.
राजा हरिश्चंद्र ने अपने वचन को पूरा करने के लिए शमशान घाट के एक डोम के हाथों अपने आप को बेच दिया. डोम ने राजा हरिश्चंद्र को शमशान घाट पर कर वसूली के लिए तैनात कर दिया और निर्देश दिया कि बिना कर वसूली के किसी को भी शव दाह न करने दिया जाए.
एक रात बहुत आंधी और वर्षा में एक अति निर्धन स्त्री अपने पुत्र के शव का दाह संस्कार करने आई , परन्तु वह कर देने में असमर्थ थी. राजा हरिश्चंद्र ने शव दाह करने से जब मना कर दिया तो वह निर्धन स्त्री रोने और विलाप करने लगी.
तभी बादलों में बिजली चमकाने से हरिश्चंद्र ने उस स्त्री को पहचान लिया. वो कोई और नहीं अपितु उनकी पत्नी ही थी और शव उनके अपने पुत्र का था. राजा हरिश्चंद्र जो सारा जीवन सत्य और कर्म पथ पर चले थे अब भी सत्य मार्ग को नहीं छोड़ना चाहते थे.
उन्होंने अपनी पत्नी से कर देने की पुनः विनती की जिस पर उसने अपनी साड़ी देनी चाही . यह सब देखकर इश्वर स्वयं प्रकट हुए और बोले “तुमने सत्य को जीवन में धारण करके उच्च आदर्श स्थापित किया है जिसके फलस्वरूप तुम सदा याद किये जाओगे. “
राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- “भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्य आचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।” और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से उनका पुत्र जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।